Sunday, September 26, 2010

अनुकरणीय श्रीमदभगवद गीता [स्थाई स्तंभ-2] - अजय कुमार


रचनाकार: अजय कुमार रविवार, 26-09-2010

Kaifi

श्रीमद्भगवदगीता- पहला अध्याय

तत: शड्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखा:।
सहसैवाभ्यहन्यंत स शव्दस्तुमुलोSभवत्॥13॥

अनुवाद:- तत्पश्चात्(उस सेना में) शीघ्र ही शंख, भेरी, ढोल, मृदग और गोमुख बाजे बजे; जिनसे भारी शब्द हुआ।

तत: स्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।
माधव: पाण्डवश्व्हैव दिव्यौ शस्खौ प्रदध्मतु:॥14॥

अनुवाद:- तदनंतर, श्वेत वर्ण के घोड़ो से जुते हुए उत्तम रथ पर स्थित श्रीकृष्ण और अर्जुन ने अपना अपना दिव्य शंख बजाया।

पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनज्जय:।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशड्खं भीमकर्मा वृकोदर:॥15॥

अनंतविजयं राजा कुंतिपुत्रो युधिष्ठिर:।
नकुल: सहदेवश्च सुघोषमणुपुष्पकौ॥16॥

अनुवाद:- श्रीकृष्ण ने पाञ्चजन्य, अर्जुन ने देवदत, भयंकर-कर्मी भीमसेन ने पौण्ड्र नामक बड़े भारी शंख को, कुंतिपुत्र युद्धिष्ठिर ने अनंत-विजय, नकुल ने सुघोष और सहदेव ने मणिपुष्पक नामक शंख को बजाया।

काश्यश्च परमेष्वास: शिखण्डी च महारथ:।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सत्यकिश्चापराजित॥17॥

द्रुपदो द्रोपदेयाश्च सर्वश: पृथ्वीपते।
सौभद्रश्च महाबाहु: शंखनन्दहमु: पृथक्पृथक्॥18॥

अनुवाद- हे रजन, धनुर्धर, काशीराज, महारथी शिखण्डी, धृष्टद्युम्न , विराट और अपराजित सात्यिकि, द्रुपद, द्रोपदी के पुत्र और सुभद्रा के लड़के महाबाहु अभिमन्यु ने अपने-अपने शंड्खों को बजाया।

स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्।
नभश्च पृथिवीं चैव तुमलोSभ्युनुनादयन॥19॥

अनुवाद- नाना वाद्यों और सिंहनादों से उत्पन्न वह शब्द, आकाश और भूमि को प्रतिद्ध्वनित करता हुआ कौरवों के हृदय को विदीर्ण करने लगा।

अथ वयवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रांकपिध्वज:।
प्रवृते शस्त्रसंपाते धनुरूद्यम्य पाण्डव:॥20॥

हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।

अर्जुन उवाच

सेनयोरूभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेSच्युत॥21॥

यावदेतान्निरीकक्षेड़्हं योद्ध्कामानवस्थितान।
कैर्मया सह योद्ध्व्यमस्मिचणसमुद्यमे॥22॥

अनुवाद- तत्पश्चात हे राजन, युद्ध करने के लिए स्ंबद्ध कौरवों को देख अर्जुन धनुष उठाकर श्रीकृष्ण से यह बोले हे कृष्ण, आप दोनो सेनाओं के बीच मेरे रथ को खड़ा करो; मै युद्ध के निमित्त आए हुए इन सुरो को देखूँ कि इस संग्राम मे किनके साथ मुझको युद्ध करना है।

योत्स्यमानांवेक्षेSहं य एतेSत्र समागता:।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेयुद्दे प्रियचुकीर्षव:॥23॥

अनुवाद:- और दुर्बुद्धि दुर्योधन के प्रिय कार्य करने की इच्छा से यहाँ जो युद्ध करने आए है उनको देखूँ।

संजय उवाच- एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत।
सेनयोरूभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तम्म्॥24॥

भीष्मद्रोणप्रमुखत: सर्वेषां च महीक्षिताम।
उवाच पार्थ पश्यैतांसमवेतांकुरूनिति॥25॥

अनुवाद:- संजय बोला- हे धृतराष्ट्र, अर्जुन के उन वचनो के सुनकर श्रीकृष्ण ने दोनो सेनाओं के मध्य मे रथ खड़ा करके भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य और राजाओं सामने कहा- हे अर्जुन, तू इन सब इकठ्ठे हुए कौरवों को देख।

तत्रापश्यत्स्थितांपार्थ: पितृनथ पितामहान।
आचार्यान मातुलान भ्रातृंपित्रांपौत्रांससखींस्तथा।
श्वशुरान सुह्द्चैव सेनयोरूभयोरपि॥26॥

अनुवाद:- वहाँ दोनो सेनाओ के बीच खड़े हुए अर्जुन ने पिता के भाईयो को, दादा-परदादो को, गुरूओं को, मामाओं को, भाईयों को, पुत्रों को, पौत्रो को तथा साथियो को, ससुरो को और मित्रो को भी देखा।

संक्षिप्त टिप्पणी:- कृष्ण भली-भाँति जानते है कि अर्जुन का यह युद्ध, इसके पहले किए गए अन्य, युद्धो से काफी अलग है। ऐसा नही है कि अर्जुन के जीवन का यह पहला युद्ध है। इसके पहले भी अर्जुन अपने तरकस के तीरो से कई अच्छे धनुर्धरो को पानी पिला चुके है किंतु उनका वह युद्ध पराये आदमियों से हुए थे। अपने जीवन मे अर्जुन ने सैकड़ों युद्ध किए किंतु अपने शत्रु का खुन बहाने में कभी पाप-पुण्य का ख्याल नहीं आया, न ही हत्या करने में कोई संकोच ही हुआ। इसलिए कृष्ण जानबुझ कर अर्जुन को दोनो सेनाओ के मध्य स्थित खड़े हुए अपने सगे-संबधियों को देखने के लिए कहते है। अर्जुन दोनो सेनाको मे मध्य खड़े हुए अपने सगे-संबंधियों को देखते है। अर्जुन के जीवन का यह विशेष क्षण है। एक नई यात्रा और नया अनुभव है। एक आम आदमी और अर्जुन मे यही समानता है। पराये और अपनों मे भेद प्राय: सभी मनुष्य करते है और यही शुरू होती है जीवन की एक नई यात्रा, नया अनुभव।

तांसमीक्ष्य स कौंतेय: सर्वान्बन्धूनस्थितान।
कृपया परयाविष्टो वोषीदन्निदमब्रवीत॥27॥

अनुवाद:- उन सारे बन्धुओं को देखकर, वह कुंतिपुत्र अत्यंत करूणा से भरकर, शोक करता हुआ यह वचन बोला।

अर्जुन उवाच:- दृष्टवेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्।
सीदंति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति॥28॥

अर्जुन ने कहा:- हे कृष्ण! युद्ध करने की इच्छा से आए हुए इन बन्धुओं को देखकर मेरे शरीर के अंग कांप रहे है और मुँह सूखा जा रहा है।

वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते।
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते॥29॥

अनुवाद:- मेरे शरीर मे कम्पकँपी हो रहा है और रोमांच हो रहा है, मेरे हाथ से गाण्डीव धनुष गिर रहा है और शरीर की त्वचा जल रही है।

न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मन:।
निमितानि च पश्यामि विपरीतानि केशव॥30॥

अनुवाद:- मेरा मन घुम रहा है, मै अपने को भूल रहा हूँ इसलिए मै खड़ा रहने में भी समर्थ नही हूँ। हे कृष्ण! मै सारे लक्षण भी बुरा ही देख रहा हूँ।

न च श्रेयोSनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।
न कांक्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च॥31॥

अनुवाद:- हे कृष्ण! निज बन्धुओ को युद्ध में मारने मे मुझे कोई अच्छाई नही दिखाई पड़्ती है। मुझे जीत, राज्य या सुख-वैभव नही चाहिए।

संक्षिप्त टिप्पणी:- युद्ध भूमि में अपने बन्धु-बान्धवो को देखकर अर्जुन का मन अत्यंत शोक और करूणा से भर जाता है। ये लक्षण अर्जुन की हृदय की कोमलता और शुद्ध भक्ति के कारण उत्पन्न होता है। युद्ध की जीत में भी कारूण्य के कारण अर्जुन को अमंगल ही दिखाई पड़ रहा है। इस सांसातिक मझधार में अर्जुन का एक मात्र मार्गदर्शक, परम हितैषी मित्र और सारथी कृष्ण है। इसलिए विवश अर्जुन श्री कृष्ण को अपनी मानसिक स्थिति बताते है। अर्जुन मोह के वशीभूत हुए चले जाते है फलस्वरूप ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है।

इस संसार में भौतिक और अभौतिक भावना के कारण प्राय: आमजन में ऐसी विशेष स्थिति उत्पन्न होती है। भौतिक भावना के वशीभूत होकर लोग धन, राज्य, ऐश्वर्य की कामना में डूब जाते है। वही दूसरी तरफ अभौतिकता ईष्या, जलन और द्वेष से कोसो दूर हो, मनुष्य को ईश्वर रूपी सारथी की तरफ मोड़्ता है। फलस्वरूप, अविचल भक्ति की उत्पत्ति होती है, परिणामस्वरूप, सदगुणो का तेजी से विकास होता है। अत: हम सभी सारथी श्री कृष्ण को अपनी वयथा बताए, वे जरूर सुनेगे। “मागेगे तो पाऐंगे, अर्जुन बन जायेंगे। भव सागर को देख, कभी न घबड़ायेगें। कृष्ण स्वयं आयेंगे, मोक्ष मार्ग बतायेगे।“

किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैजीवितेन वा।
येषामर्थे कांक्षितं नो राज्यं भोगा: सुखानि च॥32॥

अनुवाद:- हे गोविन्द! हमे ऐसे राज्य और भोग और जीवन से क्या करना है? क्योकिं जिन सारे लोगो के लिए उन्हे चाहते है, वे ही इस युद्ध भूमि में खड़े है।

त इमेSवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्तवा धनानि च।
आचार्या: पितर: पुत्रास्तथैव च पितामहा:॥33॥

मातुला: श्वशुरा: पौत्रा: श्याला: सम्बन्धिंस्तथा
एतान्न हंतुमिच्छामि धंतोड्पि मधुसूदन॥34॥

अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतो: कि: नु महीकृते।
निहत्य धार्तराष्ट्रान्न: का प्रीति: स्याज्जनार्दन्॥35॥

अनुवाद:- हे मधुसूदन। इनमें गुरूजन, पितृगण, पुत्रगण, पितामह, मामा, ससुर, पौत्र्रगण, साले और अन्य संबंधी मुझे मारे तो भी मै त्रैलोक्य के राज्य के लिए इनको मारने की इच्छा नही करता हूँ। फिर केवल पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है? हे गोविन्द ! धृर्तराष्ट्र के पुत्रो को भला मारकर हमें कौन सी प्रसननता मिलेगी।

क्रमश:
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रचनाकार परिचय:-
अजय कुमार सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया) में अधिवक्ता है। आप कविता तथा कहानियाँ लिखने के अलावा सर्व धर्म समभाव युक्त दृष्टिकोण के साथ ज्योतिषी, अंक शास्त्री एवं एस्ट्रोलॉजर के रूप मे सक्रिय युवा समाजशास्त्री भी हैं।

Saturday, September 11, 2010

अनुकरणीय श्रीमदभगवद गीता [धर्म-आध्यात्म पर स्थायी स्तंभ] - अजय कुमार

रचनाकार: अजय कुमार

Kaifi

परिचय:- योग का सर्वोतम एक मात्र ग्रन्थ गीता है। गीता में सात सौ श्लोक है। गीता आत्मा को परमात्मा से मिलन का मार्ग जगत को बताती है। गीता ब्रह्म विद्या है। इस प्रकार मोक्ष प्राप्ति के मार्ग में आनेवाली प्रत्येक समस्या एवं सवालों का जवाब है गीता।

गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए व्यक्ति मोक्ष कैसे प्राप्त करें, बतलाती है गीता। जन्म के साथ ही मृत्यु सत्य है। इस सत्य को जानते हुए भी भौतिकता के पीछे भागते रहना; संसार मे अपनी झूठी शान-शौकत के लिए कुछ भी करने से नही हिचकना; धन के पिछे भागते इंसान को आए दिन विभिन्न नई इच्छाओ को जन्म देना एवं उनकी प्राप्ति के लिए येन-केन-प्रकारेण प्रयास करना यह भौतिकता का चरमोत्कर्ष है।

क्या कभी आपने इस संसार के परे जा कर कल्पना की है? यह मन सदैव चंचल क्यों हो जाता है? मृत्यु सत्य क्यों है? समय गतिशील क्यों है? तमाम भौतिक साधनो को जुटाने के बावजूद इंसान बेचैन क्यों है? किसी भी व्यक्ति को शांति की प्राप्ति कैसे होगी? सवाल अनेक है? जबाब गीता है।

प्रत्येक व्यक्ति जिस माता-पिता के घर जन्म लेता है उनकी सम्पति का स्वामित्व प्राप्त करना चाहता है। इस स्वामित्व प्राप्ति के लिए चाहे उसे जो भी करना पडे करता चला जाता है। इस सच को जानते हुए भी कि एक दिन यह सब कुछ छोडकर उसे जाना होगा फिर भी मोहवश वह स्वामी बनने की लालसा लिए जीवन पर्यंत भौतिक सुख के पीछे भागता रहता है। पिता की सम्पति पाने के लिए वह क्या क्या नहीं करता।

प्रत्येक व्यक्ति या जीव में आत्मा होती है इस प्रकार आत्मा के पिता परमात्मा(परम आत्मा) हुए। फिर परमात्मा की सम्पति पाने के लिए हम प्रयास क्यों नहीं करते है? अगर हम थोड़ा भी प्रयास करें तो हम सब को परमात्मा की सम्पति अवश्य प्राप्त होगी।

गीता ज्ञान विषय पर हम सब विशुद्ध चिंतन करें। परमात्मा परम दयालु है अवश्य ही वह आपके प्रत्येक क्षण में मौजूद रहकर आपको अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति देना चाहते है पर, उनकी सम्पत्ति पाने का मार्ग भौतिकता नहीं (जो क्षणभंगुर है) बल्कि योग साधना है। परमात्मा के द्वारा दी गयी सम्पति कभी नष्ट नहीं होगी किंतु आपके द्वारा अर्जित सम्पति आपके सामने ही नष्ट हो जाएगी। अब तय आपको करना है, आपको परमात्मा की सम्पति चाहिए या सांसारिक सम्पति जो अब तक आप प्राप्त कर रहे है पर फिर भी बेचैन है शांति कही नहीं मिली।

कैसे करें गीता पाठ:- गीता पाठ करना अपने आप मे दुर्लभ है। गीता पाठ करने का भाव अपने मन में लाना मोक्ष प्राप्ति मार्ग की प्रथम सफलता है।

प्रत्येक मनुष्य अर्जुन की तरह है। अत: अपने को अर्जुन मानकर गीता का पाठ आरंभ करें ईश्वर का स्नेह आपको स्वत: प्राप्त हो जायेगा। इस संसार में ऐसी कोई चीज नहीं जिसे आप पा न सकते हो पर, ईश्वर का स्नेह पाना सर्वोत्तम है वही परम शांति है।

घी का एक दीपक जलाए और सुगंधित अगरबती से अपने आस पास के वातावरण को शुद्ध कर शांत मन से गीता का पाठ आरंभ करें।

श्रीमद्भगवदगीता- पहला अध्याय

धृतराष्ट्र: उवाच।

धर्मक्षेत्रे कुरूक्षेत्रे समवेता युयुत्सव:।
मामका: पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय:॥1॥

अनुवाद:- धृतराष्ट्र ने कहा, हे संजय। धर्मभूमि कुरूक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से इकठ्ठे हुए मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?

संक्षिप्त टिप्पणी :-

कुरूक्षेत्र- एक अत्यंत प्राचीन पवित्र तीर्थस्थल है। जो अम्बाला से दक्षिण तथा दिल्ली से उत्तर में है।

धर्मक्षेत्र- वैदिक संस्कृति का मुख्य केन्द्र होने के कारण कुरूक्षेत्र को “धर्मक्षेत्र” अर्थात पुण्य भूमि कहा गया है। बारह वर्ष वनवास एवं एक वर्ष अज्ञातवास बीत जाने के पश्चात अपना राज्य वापस पाने हेतु पाण्डव दुर्योधन के पास एक दुत भेजते है। किंतु दुर्योधन दूत के आग्रह को ठुकरा देता है। अंतत: श्रीकृष्ण शांतिदूत बनकर हस्तिनापूर जाते है। श्रीकृष्ण पितामह भीष्म, महात्मा विदुर, आचार्य द्रोण एवं राजा धृतराष्ट्र से भरे दरबार मे पाण्डवो के लिए न्याय माँगते है किंतु कालचक्रग्रस्त दुर्योधन एक सुई की नोक जितनी भूमि बिना युद्ध को देने के लिए तैयार नहीं होता हौ। क्रोध से भरकर वह श्रीकृष्ण को भी बंदी बनाने का असफल प्रयास करता है। पाण्डव युद्ध को अनिवार्य जानते हुए तैयारे आरंभ कर देते है। फिर दोनो सेनाओं के दोनो पक्ष अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित होकर कुरूक्षेत्र मे एक दूसरे के सामने आ जाते है। युद्ध की स्थिति को देखने के लिए महर्षि व्यास धृतराष्ट्र को दिव्य नेत्र प्रदान करना चाहते है पर, धृतराष्ट्र अपनी कुल की हत्या युद्ध मे अपनी ऑखो से नहीं देखना चाहते है किंतु युद्ध का सारा वृतांत अवश्य सुनना चाहते है। अत: महर्षि व्यास ने संजय को दिव्य दृष्टि देकर कहा कि “ये संजय तुम्हे युद्ध का वृतांत सुनायेंगे। युद्ध की समस्त घटनाओं को ये प्रत्यक्ष देख सकेगे इनसे कोई भी बात छुपी नही रह सकेगी। इस प्रकार संजय दिव्य दृष्टि के माध्यम से युद्ध की सारी घटन्नों को धृतराष्ट्र को सुनाते हुए आगे कहते है।

संजय उवाच

दृष्टवा तु पाण्डवानीकं व्यूढ़ं दुर्योधनस्तदा।
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत॥2॥

अनुवाद:- संजय ने कहा- दुर्योधन ने व्यूह मे खड़ी हुई पाण्डवो की सेना को देखी द्रोणाचार्य के पास जाकर यह कहा।

पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम।
व्यूदां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता॥3॥

अनुवाद:- हे आचार्य! आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपदपुत्र (धृष्टद्युम्न) द्वारा व्यूहाकार खड़ी की पाण्डवों के इस विशाल सेना को देखिए।

अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथ:॥4॥

धृष्टकेतुश्चेकितान: काशिराजश्च वीर्यवान।
पुरूजित्कुंतिभोजश्च शैव्यश्च नरपुंणव:॥5॥

युधामन्युश्च विक्रांत उत्तमौजाश्च वीर्यवान।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथा:॥6॥

अनुवाद:- इसमे शूर, धनुर्धर, भीम तथा अर्जुन के तुल्य योद्धा सात्यिकि, विराट, महारथी द्रुपद , धृष्टकेतु, चेकिस्तान, बलवान काशीराज, पुरूजित, कुंतिभोज और मनुष्यों मे श्रेष्ठ शैव्य, पराक्रमी युधामन्यु, बलवान उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र अभिमन्यु एवं द्रौपदी के (पाँचो) पुत्र, ये सब महारथी है।

अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम।
नायका मंम सैन्यस्य संज्ञार्थ तान ब्रवीमि ते॥7॥

अनुवाद:- हे ब्राह्मणश्रेष्ठ! हमारे पक्ष में भी जो प्रधान है, उनको आप समझ लिजिए। आपकी जानकारी के लिए, मेरी सेना के जो-जो सेनापति है उनको मै बतलता हूँ।

भवांभीष्श्च कर्णश्च कृपश्च समितिंजय:।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च॥8॥

अनुवाद :- उनमे आप और भीष्मपितामह, कर्ण, संग्रामजित कृपाचार्य, अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा है।

अन्ये च बहव: शूरा मदर्थे व्यक्तजिविता:।
नानाशस्त्रप्रहरणा: सर्वे युद्ध विशारदा:॥9॥

अनुवाद:- इनके अलावा और भी बहुत से वीर, मेरे लिए प्राणों की ममता का त्याग किए नाना प्रकार से शस्त्रों से प्रहार करने वाले तथा युद्ध के बड़े प्रवीण है।

अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम॥10॥

अनुवाद:- हे महानुभाव, भीष्मपितामह से भलीभांति रसा प्राप्त हमारे सेना विशाल है। भीमसेन से रक्षित पाण्डवों की सेना छोटी है।

अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिता:।
भीष्ममेवाभिरक्षंतु भवंत: सर्व एव हि॥11॥

अनुवाद:- अब आप सब वीरजन व्यूहों के मार्गो पर स्थित होकर भीष्म की रक्षा करें।

तस्य संजन्यन्हर्ष कुरूवृद्ध: पितामह:।
सिंहनादं विनद्योच्चै: शड्खं दध्मौ प्रतापवान॥12॥

अनुवाद: दुर्योधन को हर्षित करते हुए भीष्मपितामह ने सिंह के समान गर्जनयुक्त शंड्ख बजाया।

क्रमश:
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रचनाकार परिचय:-
अजय कुमार सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया) में अधिवक्ता है। आप कविता तथा कहानियाँ लिखने के अलावा सर्व धर्म समभाव युक्त दृष्टिकोण के साथ ज्योतिषी, अंक शास्त्री एवं एस्ट्रोलॉजर के रूप मे सक्रिय युवा समाजशास्त्री भी हैं।

Saturday, September 4, 2010

दुर्गा सप्तसति


परिचय:- नवरात्रि शक्ति साधना का महापर्व है। वैसे तो पूरे वर्ष में चार नवरात्र- चैत्र, आषाढ़, आश्विन और माघ की शुक्ल पक्ष प्रतिपदा तिथि से नवमी तिथि तक नौ दिन के होते है, किन्तु प्रसिद्धि में चैत्र और आश्विन के नवरात्र है। शीत एवं ग्रीष्म ऋतु के मिलन का यह संधिकाल वर्ष में दो बार आता है। चैत्र से मौसम शीत से बदलकर गर्मी का रूप क्रमश: लेता है और आश्विन मेंगर्मी से शीत ऋतु की ओर बढता चला जाता है। शरीर एवं मन की विकारो का निष्कासन एवं परिशोधन इस संधि वेला में सहज रूप से होता है। नवरात्र भी प्रकृति जगत में ऋतुओं का संधिकाल है। यह अवधि नौ दिनों की होती है। पृथ्वी की गति मंद पड़ जाती है। योग साधना एवं मन की चेतना के परिमार्जन, परिशोधन हेतु यह अवधि अत्यधिक महत्वपूर्ण है। हिन्दु संस्कृति में इस संधिकाल में नौ दिनों का व्रत-काल निश्चित किया गया है ताकि शरीर आने वाली ऋतु के अनुसार ढ़ल सके और जरा-व्याधि का उस पर कोई प्रभाव न पडे। मौसम परिवर्तन की इस कालावधि में समूची प्रकृति बदलने लगती है, जिसका सीधा प्रभाव हमारे शरीर पर पड़ता है। कफ, पित एवं वायु तत्व की संतुलन बिगड़ने लगता है, यही कारण है कि ऋतुओं के इस संधिकाल मे बिमारियाँ बढ़ जाती है। अतएव नौ दिनो तक जब हम आहार-विहार में संयम बरतते हुए पूजा के नियमों का पालन करते है, मानसिक रूप से संयमित जीवन व्यतीत करते है तो प्रकृति स्वत: शरीर एवं मन को स्वस्थ रखने में सहयोग करती है। नवरात्री अनुष्ठान की परिभाषा देते हुए भी कहा गया है-

”नव शक्तिभि: संयुक्तं नवरात्रं तदुच्यते”


अर्थात देवी की नवधा शक्ति जिस समय एक महाशक्ति का रूप धारण करती है उसे ही नवरात्रि कहते है। नवरात्रि नवनिर्माण के लिए होती है चाहे आध्यात्मिक हो या भौतिक। आदिकाल से ही मनुष्य की प्रकृति शक्ति साधना की रही है। शक्ति साधना का प्रथम रूप दुर्गा ही मानी जाती है। मनुष्य तो क्या देवी-देवता, यक्ष-किन्नर भी अपने संकट निवारण के लिए मॉ दुर्गा को ही पुकारते है। इस सौभाग्य के सामने पैसा, धन-दौलत, समय या वयस्तता तुच्छ है क्योंकि कल किसने देखा है? हम सभी ने अपनी किस्मत को, भाग्य को कोसते हुए बहुतो को देखा होगा। जब कभी सफलता नहीं मिलती तो भाग्य खराब है, भाग्य मे नहीं लिखा है, भाग्य साथ नहीं दे रहा है आदि बातें कही जाती है। किंतु वास्तव मे भाग्य क्या है....मात्र एक अवसर। जो हर किसी को उपलब्ध होता है लेकिन अज्ञानतावश वह अवसर खो देना ही दुर्भाग्य है। ऑखे सबके माथे में जड़ी होती है, पर विवेक दृष्टि सौभाग्यवानो को ही मिलती है। समय सबके लिए समान होता है। सूरज किसी की पैतृक सम्पति नहीं है वह सबका है और वही पूरी दुनिया की घड़ी है। जिस प्रकार बरसते हुए जल मे से वही आपके काम का होता है जितना पानी आप घड़े या किसी बरतन मे इकठ्ठा कर लेते है। ठीक इसी प्रकार समय के साथ भी होता है। आप और मै उसके जितने हिस्से को रोक लेते है अर्थात जितने हिस्से का उपयोग कर लेते है, उतना हमारा हो जाता है। आप समय के होइये, समय आपका हो जायेगा। हमे हाथ आये अवसर का सम्मान करना होगा, उसे थाम लेना होगा। अगर हमने आने वाली इस नवरात्रि के अवसर को थाम लिया तो ऐसी कोई शक्ति संसार में दूसरी नही जो आपको प्राप्त होने वाले माता के अनुग्रह से दूर रख सके। उसकी कृपा और
रचनाकार परिचय:-
अजय कुमार सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया) में अधिवक्ता है। आप कविता तथा कहानियाँ लिखने के अलावा सर्व धर्म समभाव युक्त दृष्टिकोण के साथ ज्योतिषी, अंक शास्त्री एवं एस्ट्रोलॉजर के रूप मे सक्रिय युवा समाजशास्त्री भी हैं।
आशीर्वाद से दूर रख सके। दुर्गा माँ की शक्ति के स्वरूप का ही पर्व नवरात्री है। अखिल ब्रह्माण्ड की महाशक्ति ऐश्वर्य व ज्ञान की अधिष्ठात्री माँ जगदम्बे के नौ रूपों की उपासना का दुर्लभ अवसर ही नवरात्रि है। प्रत्येक मनुष्य मे दैवी शक्ति छिपी हुई है और वह सब कुछ कर सकता है। इस शक्ति के बल पर अपनी परिस्थिति बदल सकता है। जिस प्रकार धन के बदले में अभीष्ट वस्तुयें खरीदी जा सकती है, उसी प्रकार समय के बदले मे भी विद्या, बुद्धि, लक्ष्मी, कीर्ति, आरोग्य, सुख-शांति, मुक्ति आदि जो भी रूचिकर हो खरीदी जा सकती है।


“या श्री: स्वयं सुकृतिनां भवनेष्व लक्ष्मी:,
पापात्मना कृतधियाँ हृदयेषु बुद्धि:।
श्रद्धा सतां कुलजन प्रभवस्य लज्जा,
तां त्वां नता: स्म परिपालय देविविश्वम॥“

अर्थात जो पुण्यात्माओ के घरो में स्वयं श्री लक्षमी के रूप में, पापियो के यहाँ दरिद्रता रूप में, शुद्ध अंत:करण वाले व्यक्तियों के हृदय मे सदबुद्धि रूप में, सतपुरूषो में श्रद्धा रूप में, कुलीन व्यक्तियों मे लज्जा रूप मे निवास करती है। उसी भगवती दुर्गा को हम सभी नमस्कार करते है। हे देवी आप ही विश्व का पालन पोषण कीजिये।

“ॐ नमो दैव्यै महादैव्यै शिवायै सततं नम:॥
नम: प्रकृत्यै भद्रायै नियता: प्रणता: स्मताम॥“

देवी के नौ रूप:- माँ भक्त वत्सला और अजय है, अतएव जो भक्त दुर्गासप्तशती(तंत्र का सर्वोतम ग्रंथ) का उचित ढ़ंग से अध्यन और चिंतन मनन करके हृदयंगम कर लिया तो समझिए फिर उसे तंत्र की कोई पुस्तक पढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं है। दुर्गासप्तशती अपने आप में सम्पूर्ण ग्रंथ, सम्पूर्ण पुराण एवं सम्पूर्ण वेद है। तीनो लोको में माँ का सहारा सर्वोत्तम है। देवी के नौ रूप निम्न है:-

प्रथम शैलपुत्री:-

इनके ध्यान का मंत्र है:-

”वन्दे वांछित लाभाय चन्द्रार्द्वकृत शेखराम।
वृषारूढ़ा शूलधरां शैलपुत्री यशस्विनीम॥“

गिरिराज हिमालय की पुत्री होने के कारण भगवती का प्रथम स्वरूप शैलपुत्री का है, जिनकी आराधना से प्राणी सभी मनोवांछित फल प्राप्त कर लेता है।

द्वितीय ब्रह्मचारिणी:-

इनके ध्यान का मंत्र है:-

“दधना कर पद्याभ्यांक्षमाला कमण्डलम।
देवी प्रसीदमयी ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा॥“

जो दोनो कर-कमलो मे अक्षमाला एवं कमंडल धारण करती है। वे सर्वश्रेष्ठ माँ भगवती ब्रह्मचारिणी मुझसे पर अति प्रसन्न हों। माँ ब्रह्मचारिणी सदैव अपने भक्तो पर कृपादृष्टि रखती है एवं सम्पूर्ण कष्ट दूर करके अभीष्ट कामनाओ की पूर्ति करती है।

तृतीय चन्द्रघण्टा:-

इनके ध्यान का मंत्र है:-

”पिण्डजप्रवरारूढ़ा चण्डकोपास्त्रकैयुता।
प्रसादं तनुते मद्यं चन्द्रघण्टेति विश्रुता॥“

इनकी आराधना से मनुष्य के हृदय से अहंकार का नाश होता है तथा वह असीम शांति की प्राप्ति कर प्रसन्न होता है। माँ चन्द्रघण्टा मंगलदायनी है तथा भक्तों को निरोग रखकर उन्हें वैभव तथा ऐश्वर्य प्रदान करती है। उनके घंटो मे अपूर्व शीतलता का वास है।

चर्तुकम कुष्माण्डा:-

इनके ध्यान का मंत्र है:-

”सुरासम्पूर्णकलशं रूधिराप्लुतमेव च।
दधानाहस्तपद्याभ्यां कुष्माण्डा शुभदास्तु में॥“

इनकी आराधना से मनुष्य त्रिविध ताप से मुक्त होता है। माँ कुष्माण्डा सदैव अपने भक्तों पर कृपा दृष्टि रखती है। इनकी पूजा आराधना से हृदय को शांति एवं लक्ष्मी की प्राप्ति होती हैं।

पंचम स्कन्दमाता :-

इनके ध्यान का मंत्र है:-

“सिंहासनगता नित्यं पद्याञ्चितकरद्वया।
शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी॥“

इनकी आराधना से मनुष्य सुख-शांति की प्राप्ति करता है। सिह के आसन पर विराजमान तथा कमल के पुष्प से सुशोभित दो हाथो वाली यशस्विनी देवी स्कन्दमाता शुभदायिनी है।

षष्ठ कात्यायनी :-

इनके ध्यान का मंत्र है:-

“चन्द्रहासोज्जवलकरा शार्दूलावरवाहना।
कात्यायनी शुभं दद्यादेवी दानव घातिनी॥“

इनकी आराधना से भक्त का हर काम सरल एवं सुगम होता है। चन्द्रहास नामक तलवार के प्रभाव से जिनका हाथ चमक रहा है, श्रेष्ठ सिंह जिसका वाहन है, ऐसी असुर संहारकारिणी देवी कात्यायनी कल्यान करें।

सप्तम कालरात्री:-

इनके ध्यान का मंत्र है:-

“एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता।
लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी॥
वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टक भूषणा।
वर्धन्मूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयंकरी॥“

संसार में कालो का नाश करने वाली देवी ‘कालरात्री’ ही है। भक्तों द्वारा इनकी पूजा के उपरांत उसके सभी दु:ख, संताप भगवती हर लेती है। दुश्मनों का नाश करती है तथा मनोवांछित फल प्रदान कर उपासक को संतुष्ट करती हैं।

अष्टम महागौरी:-

इनके ध्यान का मंत्र है:-

“श्वेत वृषे समारूढ़ा श्वेताम्बर धरा शुचि:।
महागौरी शुभं दद्यान्महादेव प्रमोददा॥“

माँ महागौरी की आराधना से किसी प्रकार के रूप और मनोवांछित फल प्राप्त किया जा सकता है। उजले वस्त्र धारण किये हुए महादेव को आनंद देवे वाली शुद्धता मूर्ती देवी महागौरी मंगलदायिनी हों।

नवम सिद्धिदात्री:-

इनके ध्यान का मंत्र है:-

“सिद्धगंधर्वयक्षादौर सुरैरमरै रवि।
सेव्यमाना सदाभूयात सिद्धिदा सिद्धिदायनी॥“

सिद्धिदात्री की कृपा से मनुष्य सभी प्रकार की सिद्धिया प्राप्त कर मोक्ष पाने मे सफल होता है। मार्कण्डेयपुराण में अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व एवं वशित्वये आठ सिद्धियाँ बतलायी गयी है। भगवती सिद्धिदात्री उपरोक्त संपूर्ण सिद्धियाँ अपने उपासको को प्रदान करती है।

माँ दुर्गा के इस अंतिम स्वरूप की आराधना के साथ ही नवरात्र के अनुष्ठान का समापन हो जाता है।

दुर्गा सप्तशती:- दुर्गा सप्तशती अपने आपमें एक अदभुत तंत्र ग्रंथ है। महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती का संबंध क्रमश: ऋगवेद, यजुर्वेद और सामवेद से है। ये तीनो वेद तीनो महाशक्तियों का स्वरूप है। इसी प्रकार शाक्त तंत्र, शैव तंत्र और वैष्णव तंत्र उपरोक्त तीनो स्वरूप की अभिव्यक्ति हैं। अत: सप्तशती तीनो वेदो का प्रतिनिधित्व करता है। दुर्गा सप्तशती में (700) सात सौ प्रयोग है जो इस प्रकार है:- मारण के 90, मोहन के 90, उच्चाटन के दो सौ(200), स्तंभन के दो सौ(200), विद्वेषण के साठ(60) और वशीकरण के साठ(60)। इसी कारण इसे सप्तशती कहा जाता है।

दुर्गा सप्तशती पाठ विधि:-

नवरात्र घट स्थापना (ऐच्छिक):- नवरात्र का श्रीगणेश शुक्ल पतिपदा को प्रात:काल के शुभमहूर्त में घट स्थापना से होता है। घट स्थापना हेतु मिट्टी अथवा साधना के अनुकूल धातु का कलश लेकर उसमे पूर्ण रूप से जल एवं गंगाजल भर कर कलश के उपर (मुँह पर) नारियल(छिलका युक्त) को लाल वस्त्र/चुनरी से लपेट कर अशोक वृक्ष या आम के पाँच पत्तो सहित रखना चाहिए। पवित्र मिट्टी में जौ के दाने तथा जल मिलाकर वेदिका का निर्माण के पश्चात उसके उपर कलश स्थापित करें। स्थापित घट पर वरूण देव का आह्वान कर पूजन सम्पन्न करना चाहिए। फिर रोली से स्वास्तिक बनाकर अक्षत एवं पुष्प अर्पण करना चाहिए।

कुल्हड़ में जौ बोना(ऐच्छिक):- नवरात्र के अवसर पर नवरात्रि करने वाले व्यक्ति विशेष शुद्ध मिट्टी मे, मिट्टी के किसी पात्र में जौ बो देते है। दो दिनो के बाद उसमे अंकुर फुट जाते है। यह काफी शुभ मानी जाती है।

मूर्ति या तसवीर स्थापना(ऐच्छिक):- माँ दुर्गा, श्री राम, श्री कृष्ण अथवा हनुमान जी की मूर्ती या तसवीर को लकड़ी की चौकी पर लाल अथवा पीले वस्त्र(अपनी सुविधानुसार) के उपर स्थापित करना चाहिए। जल से स्नान के बाद, मौली चढ़ाते हुए, रोली अक्षत(बिना टूटा हुआ चावल), धूप दीप एवं नैवेध से पूजा अर्चना करना चाहिए।

अखण्ड ज्योति(ऐच्छिक):- नवरात्र के दौरान लगातार नौ दिनो तक अखण्ड ज्योति प्रज्जवलित की जाती है। किंतु यह आपकी इच्छा एवं सुविधा पर है। आप केवल पूजा के दौरान ही सिर्फ दीपक जला सकते है।

आसन:- लाल अथवा सफेद आसन पूरब की ओर बैठकर नवरात्रि करने वाले विशेष को पूजा, मंत्र जप, हवन एवं अनुष्ठान करना चाहिए।

नवरात्र पाठ:- माँ दुर्गा की साधना के लिए श्री दुर्गा सप्तशती का पूर्ण पाठ अर्गला, कवच, कीलक सहित करना चाहिए। श्री राम के उपासक कोराम रक्षा स्त्रोत’, श्री कृष्ण के उपासक कोभगवद गीताएवं हनुमान उपासक कोसुन्दरकाण्ड आदि का पाठ करना चाहिए।

भोगप्रसाद:- प्रतिदिन देवी एवं देवताओं को श्रद्धा अनुसार विशेष अन्य खाद्द्य पदार्थो के अलावा हलुए का भोग जरूर चढ़ाना चाहिए।

कुलदेवी का पूजन:- हर परिवार मे मान्यता अनुसार जो भी कुलदेवी है उनका श्रद्धा-भक्ति के साथ पूजा अर्चना करना चाहिए।

विसर्जन:- विजयादशमी के दिन समस्त पूजा हवन इत्यादि सामग्री को किसी नदी या जलाशय में विसर्जन करना चाहिए।

पूजा सामग्री:- कुंकुम, सिन्दुर, सुपारी, चावल, पुष्प, इलायची, लौग, पान, दुध, घी, शहद, बिल्वपत्र, यज्ञोपवीत, चन्दन, इत्र, चौकी, फल, दीप, नैवैध(मिठाई), नारियल आदि।

मंत्र सहित पूजा विधि:- स्वयं को शुद्ध करने के लिए बायें हाथ मे जल लेकर, उसे दाहिने हाथ से ढ़क लें। मंत्रोच्चारण के साथ जल को सिर तथा शरीर पर छिड़क लें।

“ॐ अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोsपिवा।
य: स्मरेत पुंडरीकाक्षं स: बाह्य अभ्यंतर: शुचि॥
ॐ पुनातु पुण्डरीकाक्ष: पुनातु पुण्डरीकाक्ष पुनातु॥“


आचमन:- तीन बार वाणी, मन व अंत:करण की शुद्धि के लिए चम्मच से जल का आचमन करें। हर एक मंत्र के साथ एक आचमन किया जाना चाहिए।

ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा।
ॐ अमृताविधानमसि स्वाहा।
ॐ सत्यं यश: श्रीमंयी श्री: श्रयतां स्वाहा।


प्राणायाम:- श्वास को धीमी गति से भीतर गहरी खींचकर थोड़ा रोकना एवं पुन: धीरे-धीरे निकालना प्राणायाम कहलाता है। श्वास खीचते समय यह भावना करे किं प्राण शक्ति एवं श्रेष्ठता सॉस के द्वारा आ रही है एवं छोड़ते समय यह भावना करे की समस्त दुर्गण-दुष्प्रवृतियां, बुरे विचार, श्वास के साथ बाहर निकल रहे है। प्राणायाम निम्न मंत्र के उच्चारण के उपरान्त करें:

ॐ भू: ॐ भुव: ॐ स्व: ॐ मह:।
ॐ जन: ॐ तप: ॐ सत्यम।
ॐ तत्सवितुर्ररेण्यं भर्गो देवस्य धीमही धियो यो न: प्रचोदयात।
ॐ आपोज्योतिरसोअमृतं बह्मभुर्भुव स्व: ॐ।


न्यास:- इसका प्रयोजन शरीर के सभी महत्वपूर्ण अंगो में पवित्रता का समावेश तथा अंत:चेतना को जगाना ताकि देवपूजन जैसा श्रेष्ठ कृत्य किया जा सके। बाए हाथ में(हथेली) जल लेकर दाहिने हाथ की पांचो अंगुलियों को उनमे भिगोकर बताए गए स्थान को मंत्रोचार के साथ स्पर्श करें।

ॐ वाड़मेsआस्येsस्तु। (मुख को)
ॐ नसोर्मेप्राणेsस्तु। (नासिका के दोनो छिद्रों को)
ॐ अक्ष्णोर्मेचक्षुरस्तु। (दोनो नेत्रो को)
ॐ कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु। (दोनो कानो को)
ॐ बाह्वोर्मे बलमस्तु। (दोनो बाहो को)
ॐ उर्वोर्मेओजोsस्तु। (दोनो जंघाओं को)
ॐ अरिष्टानिमेsड़्गानि, तनूस्तंवा मे सहसन्तु। (समस्त शरीर को)


आसन शुद्धि:- आसन की शुद्धि के लिए धरती माता को स्पर्श करें।

ॐ पृथ्वित्वया घृता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता:।
ॐ त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरू चासनम॥


रक्षा विधान:- रक्षा विधान का अर्थ है जहाँ हम पूजा कर रहे है वहाँ यदि कोई आसुरी शक्तियाँ, मानसिक विकार आदि हो तो चले जायें, जिससे पूजा में कोई बाधा उपस्थित न हो। बाए हाथ मे पीली सरसो अथवा अक्षत लेकर दाहिने हाथ से ढ़क दें। निम्न मंत्र उच्चारण के पश्चात सभी दिशाओं में उछाल दें।

ॐ अपसर्पन्तु ते भूता: ये भूता:भूमि संस्थिता:।
ये भूता: बिघ्नकर्तारस्तेनश्यन्तु शिवाज्ञया॥
अपक्रामन्तु भूतानि पिशाचा: सर्वतो दिशम।
सर्वेषामविरोधेन पूजा कर्मसमारभ्भे॥


गणपति पूजन:- लकड़ी के पट्टे या चौकी पर सफेद वस्त्र बिछाकर उस पर एक थाली रखें। इस थाली में कुंकुम से स्वस्तिक का चिन्ह बनाकर उस पर पुष्प आसन लगाकर गण अपति की प्रतिमा या फोटो(तस्वीर) स्थापित कर दें या सुपारी पर लाल मौली बांधकर गणेश के रूप में स्थापित करना चाहिए। अब अक्षत, लाल पुष्प(गुलाब), दूर्वा(दुवी) एवं नेवैध गणेश जी पर चढ़ाना चाहिए। जल छोड़ने के पश्चात निम्न मंत्र का 21 बार जप करना चाहिए:-

“ॐ गं गणपतये नम:”

मंत्रोच्चारण के पश्चात अपनी मनोकामना पूर्ती हेतु निम्न मंत्र से प्रार्थना करें:-

विध्नेश्वराय वरदाय सुरप्रियाय।
लम्बोदराय सकलाय जगद्विताय॥
नागाननाय श्रुति यज्ञ विभूषिताय।
गौरी सुताय गण नाथ नमो नमस्ते॥
भक्तार्त्तिनाशन पराय गणेश्वराय।
सर्वेश्वराय शुभदाय सुरेश्वराय॥
विद्याधराय विकटाय च वामनाय।
भक्त प्रसन्न वरदाय नमो नमस्ते॥


संकल्प:- दाहिने हाथ मे जल, कुंकुम, पुष्प, चावल साथ मे ले

“ॐ विष्णु र्विष्णु: श्रीमद्भगवतो विष्णोराज्ञाया प्रवर्तमानस्य, अद्य, श्रीबह्मणो द्वितीय प्ररार्द्धे श्वेत वाराहकल्पे जम्बूदीपे भरत खण्डे आर्यावर्तैक देशान्तर्गते, मासानां मासोत्तमेमासे (अमुक) मासे (अमुक) पक्षे (अमुक) तिथौ (अमुक) वासरे (अपने गोत्र का उच्चारण करें) गोत्रोत्पन्न: (अपने नाम का उच्चारण करें) नामा: अहं (सपरिवार/सपत्नीक) सत्प्रवृतिसंवर्धानाय, लोककल्याणाय, आत्मकल्याण्य, ...........(अपनी कामना का उच्चारण करें) कामना सिद्दयर्थे दुर्गा पूजन विद्यानाम तथा साधनाम करिष्ये।“

जल को भूमि पर छोड़ दे। अगर कलश स्थापित करना चाहते है तो अब इसी चौकी पर स्वास्तिक बनाकर बाये हाथ की ओर कोने में कलश(जलयुक्त) स्थापित करें। स्वास्तिक पर कुकंम, अक्षत, पुष्प आदि अर्पित करते हुए कलश स्थापित करें। इस कलश में एक सुपारी कुछ सिक्के, दूब, हल्दी की एक गांठ डालकर, एक नारियल पर स्वस्तिक बनाकर उसके उपर लाल वस्त्र लपेटकर मौली बॉधने के बाद कलश पर स्थापित कर दें। जल का छींटा देकर, कुंकम, अक्षत, पुष्प आदि से नारियल की पूजा करे। वरूण देव को स्मरण कर प्रणाम करे। फिर पुरब, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण में(कलश मे) बिन्दी लगाए। अब एक दूसरी स्वच्छ थाली में स्वस्तिक बनाकर उस पर पुष्प का आसन लगाकर दुर्गा प्रतिमा या तस्वीर या यंत्र को स्थापित करें। अब निम्न प्रकार दुर्गा पूजन करे:-

स्नानार्थ जलं समर्पयामि (जल से स्नान कराए)
स्नानान्ते पुनराचमनीयं जल समर्पयामि (जल चढ़ाए)
दुग्ध स्नानं समर्पयामि (दुध से स्नान कराए)
दधि स्नानं समर्पयामि (दही से स्नान कराए)
घृतस्नानं समर्पयामि (घी से स्नान कराए)
मधुस्नानं समर्पयामि (शहद से स्नान कराए)
शर्करा स्नानं समर्पयामि (शक्कर से स्नान कराए)
पंचामृत स्नानं समर्पयामि (पंचामृत से स्नान कराए)
गन्धोदक स्नानं समर्पयामि (चन्दन एवं इत्र से सुवासित जल से स्नान करावे)
शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि (जल से पुन: स्नान कराए)
यज्ञोपवीतं समर्पयामि (यज्ञोपवीत चढ़ाए)
चन्दनं समर्पयामि (चंदन चढ़ाए)
कुकंम समर्पयामि (कुकंम चढ़ाए)
सुन्दूरं समर्पयामि (सिन्दुर चढ़ाए)
बिल्वपत्रै समर्पयामि (विल्व पत्र चढ़ाए)
पुष्पमाला समर्पयामि (पुष्पमाला चढ़ाए)
धूपमाघ्रापयामि (धूप दिखाए)
दीपं दर्शयामि (दीपक दिखाए व हाथ धो लें)
नैवेध निवेद्यामि (नेवैध चढ़ाए(निवेदित) करे)
ऋतु फलानि समर्पयामि (फल जो इस ऋतु में उपलब्ध हो चढ़ाए)
ताम्बूलं समर्पयामि (लौंग, इलायची एवं सुपारी युक्त पान चढ़ाए)
दक्षिणा समर्पयामि (दक्षिणा चढ़ाए)

इसके बाद कर्पूर अथवा रूई की बाती जलाकर आरती करे।

आरती के नियम:- प्रत्येक व्यक्ति जानकारी के अभाव में अपनी मन मर्जी आरती उतारता रहता है। विशेष ध्यान देने योग्य बात है कि देवताओं के सम्मुख चौदह बार आरती उतारना चाहिए। चार बार चरणो पर से, दो बार नाभि पर से, एक बार मुख पर से तथा सात बार पूरे शरीर पर से। आरती की बत्तियाँ 1,5,7 अर्थात विषम संख्या में ही बत्तियाँ बनाकर आरती की जानी चाहिए।

दुर्गा जी की आरती:-

जय अम्बे गौरी, मैया जय श्यामा गौरी।
तुमको निशिदिन ध्यावत हरि ब्रह्मा शिव री ॥1॥ जय अम्बे....
माँग सिंदुर विराजत टीको मृगमदको।
उज्ज्वल से दोउ नैना, चन्द्रवदन नीको ॥2॥ जय अम्बे....
कनक समान कलेवर रक्ताम्बर राजै।
रक्त-पुष्प गल माला, कण्ठनपर साजै ॥3॥ जय अम्बे....
केहरी वाहन राजत, खड्ग खपर धारी।
सुर-नर-मुनि-जन सेवत, तिनके दुखहरी ॥4॥ जय अम्बे....
कानन कुण्डल शोभित, नासाग्रे मोती।
कोटिक चन्द्र दिवाकर, सम राजत ज्योती ॥5॥ जय अम्बे....
शुभ्भ निशुभ्भ विदारे, महिषासुर-धाती।
धूम्रविलोचन नैना निशिदिन मदमाती ॥6॥ जय अम्बे....
चण्ड मुण्ड संहारे, शोणितबीज हरे।
मधु कैटभ दोउ मारे, सुर भयहीन करे ॥7॥ जय अम्बे....
ब्रह्माणी, रूद्राणी तुम कमलारानी।
आगम-निगम-बखानी, तुम शिव पटरानी ॥8॥ जय अम्बे....
चौसठ योगिनि गावत, नृत्य करत भैरूँ।
बाजत ताल मृदंगा औ बाजत डमरू ॥9॥ जय अम्बे....
तुम ही जग की माता, तुम ही हो भरता।
भक्तन की दुख हरता सुख सम्पति करता ॥10॥ जय अम्बे....
भुजा चार अति शोभित, वर मुद्रा धारी।
मनवाञ्छित फल पावत, सेवत नर-नारी ॥11॥ जय अम्बे....
कंचन थाल विराजत, अगर कपुर बाती।
(श्री) मालकेतु में राजत कोटिरतन ज्योती ॥12॥ जय अम्बे....
(श्री) अम्बेजी की आरती जो कोई नर गावै।
कहत शिवानंद स्वामी, सुख सम्पति पावै ॥13॥ जय अम्बे....


प्रदक्षिणा:-

“यानि कानि च पापानी जन्मान्तर कृतानि च।
तानी सर्वानि नश्यन्तु प्रदक्षिणपदे पदे॥
प्रदक्षिणा समर्पयामि।“

प्रदक्षिणा करें (अगर स्थान न हो तो आसन पर खड़े-खड़े ही स्थान पर घूमे)

क्षमा प्रार्थना:- पुष्प सर्मपित कर देवी को निम्न मंत्र से प्रणाम करे।

“नमो दैव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नम:।
नम: प्रकृतयै भद्रायै नियता: प्रणता: स्मताम॥
या देवी सर्व भूतेषु मातृरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

ततपश्चात देवी से क्षमा प्रार्थना करे कि जाने अनजाने में कोई गलती या न्यूनता-अधिकता यदि पूजा में हो गई हो तो वे क्षमा करें।

इस पूजन के पश्चात अपने संकल्प मे कहे हुए मनोकामना सिद्धि हेतु निम्न मंत्र का यथाशक्ति श्रद्धा अनुसार 9 दिन तक जप करें:-

”ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे॥“


इस मंत्र के बाद दुर्गा सप्तशती के सभी अध्यायो का पाठ 9 दिन मे पूर्ण करें।
नवरात्री की समाप्ति पर यदि कलश स्थापना की हो तो इसके जल को सारे घर मे छिड़क दें। इस प्रकार पूजा सम्पन्न होती है। यदि कोई व्यक्ति विशेष उपरांकित विधि का पालन करने मे असमर्थ है तो नवरात्रि के दौरान दुर्गा चालीसा का पाठ करें।

सावधानियाँ:-

- पूजा से संबंधित सामाग्री पूजा स्थान पर पहले ही रख लें।
- धुले हुए साफ वस्त्र अपए पहनने के लिए हमेशा तैयार रखे।
- पूजा की चौकी पूजा स्थान पर धो कर पूजा से पहले रख ले।
- नवरात्री के दौरान दिन-रात मिलाकर एक समय भोजन करना चाहिए या फलाहार करें।
- जाप या तो कर माला से करें या जप माला संभाल कर रखे।
- साधक को सफेद/लाल/पीले वस्त्र के दौरान पहनना चाहिए।
- नवरात्री के दौरान बाल न कटवाए।
- नवरात्री में व्यर्थ वाद-विवाद, कहानी-किस्से की पुस्तके एवं फिल्म आदि से दूर रहना चाहिए।
- सम्पूर्ण पूजा के दौरान जप को माँ दुर्गा के चरणो मे समर्पित करे।
- विजयादशमी के दिन पूजा मे प्रयुक्त सभी सामग्री को कुछ दक्षिणा एवं पुष्प सहित दुर्गा मंदिर मे चढ़ा दे या नदी मे प्रवाहित करना चाहिए।

मै अपने इस आलेख को माँ जगत जननी के चरणो में समर्पित करता हूँ।
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उपरोक्त पूजा विधि लेखक के स्वर में साहित्य शिल्पी के पास उपलब्ध है, इसे sahityashilpi@gmail.com पर संपर्क कर प्राप्त किया जा सकता है।
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