Sunday, September 26, 2010

अनुकरणीय श्रीमदभगवद गीता [स्थाई स्तंभ-2] - अजय कुमार


रचनाकार: अजय कुमार रविवार, 26-09-2010

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श्रीमद्भगवदगीता- पहला अध्याय

तत: शड्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखा:।
सहसैवाभ्यहन्यंत स शव्दस्तुमुलोSभवत्॥13॥

अनुवाद:- तत्पश्चात्(उस सेना में) शीघ्र ही शंख, भेरी, ढोल, मृदग और गोमुख बाजे बजे; जिनसे भारी शब्द हुआ।

तत: स्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।
माधव: पाण्डवश्व्हैव दिव्यौ शस्खौ प्रदध्मतु:॥14॥

अनुवाद:- तदनंतर, श्वेत वर्ण के घोड़ो से जुते हुए उत्तम रथ पर स्थित श्रीकृष्ण और अर्जुन ने अपना अपना दिव्य शंख बजाया।

पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनज्जय:।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशड्खं भीमकर्मा वृकोदर:॥15॥

अनंतविजयं राजा कुंतिपुत्रो युधिष्ठिर:।
नकुल: सहदेवश्च सुघोषमणुपुष्पकौ॥16॥

अनुवाद:- श्रीकृष्ण ने पाञ्चजन्य, अर्जुन ने देवदत, भयंकर-कर्मी भीमसेन ने पौण्ड्र नामक बड़े भारी शंख को, कुंतिपुत्र युद्धिष्ठिर ने अनंत-विजय, नकुल ने सुघोष और सहदेव ने मणिपुष्पक नामक शंख को बजाया।

काश्यश्च परमेष्वास: शिखण्डी च महारथ:।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सत्यकिश्चापराजित॥17॥

द्रुपदो द्रोपदेयाश्च सर्वश: पृथ्वीपते।
सौभद्रश्च महाबाहु: शंखनन्दहमु: पृथक्पृथक्॥18॥

अनुवाद- हे रजन, धनुर्धर, काशीराज, महारथी शिखण्डी, धृष्टद्युम्न , विराट और अपराजित सात्यिकि, द्रुपद, द्रोपदी के पुत्र और सुभद्रा के लड़के महाबाहु अभिमन्यु ने अपने-अपने शंड्खों को बजाया।

स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्।
नभश्च पृथिवीं चैव तुमलोSभ्युनुनादयन॥19॥

अनुवाद- नाना वाद्यों और सिंहनादों से उत्पन्न वह शब्द, आकाश और भूमि को प्रतिद्ध्वनित करता हुआ कौरवों के हृदय को विदीर्ण करने लगा।

अथ वयवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रांकपिध्वज:।
प्रवृते शस्त्रसंपाते धनुरूद्यम्य पाण्डव:॥20॥

हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।

अर्जुन उवाच

सेनयोरूभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेSच्युत॥21॥

यावदेतान्निरीकक्षेड़्हं योद्ध्कामानवस्थितान।
कैर्मया सह योद्ध्व्यमस्मिचणसमुद्यमे॥22॥

अनुवाद- तत्पश्चात हे राजन, युद्ध करने के लिए स्ंबद्ध कौरवों को देख अर्जुन धनुष उठाकर श्रीकृष्ण से यह बोले हे कृष्ण, आप दोनो सेनाओं के बीच मेरे रथ को खड़ा करो; मै युद्ध के निमित्त आए हुए इन सुरो को देखूँ कि इस संग्राम मे किनके साथ मुझको युद्ध करना है।

योत्स्यमानांवेक्षेSहं य एतेSत्र समागता:।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेयुद्दे प्रियचुकीर्षव:॥23॥

अनुवाद:- और दुर्बुद्धि दुर्योधन के प्रिय कार्य करने की इच्छा से यहाँ जो युद्ध करने आए है उनको देखूँ।

संजय उवाच- एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत।
सेनयोरूभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तम्म्॥24॥

भीष्मद्रोणप्रमुखत: सर्वेषां च महीक्षिताम।
उवाच पार्थ पश्यैतांसमवेतांकुरूनिति॥25॥

अनुवाद:- संजय बोला- हे धृतराष्ट्र, अर्जुन के उन वचनो के सुनकर श्रीकृष्ण ने दोनो सेनाओं के मध्य मे रथ खड़ा करके भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य और राजाओं सामने कहा- हे अर्जुन, तू इन सब इकठ्ठे हुए कौरवों को देख।

तत्रापश्यत्स्थितांपार्थ: पितृनथ पितामहान।
आचार्यान मातुलान भ्रातृंपित्रांपौत्रांससखींस्तथा।
श्वशुरान सुह्द्चैव सेनयोरूभयोरपि॥26॥

अनुवाद:- वहाँ दोनो सेनाओ के बीच खड़े हुए अर्जुन ने पिता के भाईयो को, दादा-परदादो को, गुरूओं को, मामाओं को, भाईयों को, पुत्रों को, पौत्रो को तथा साथियो को, ससुरो को और मित्रो को भी देखा।

संक्षिप्त टिप्पणी:- कृष्ण भली-भाँति जानते है कि अर्जुन का यह युद्ध, इसके पहले किए गए अन्य, युद्धो से काफी अलग है। ऐसा नही है कि अर्जुन के जीवन का यह पहला युद्ध है। इसके पहले भी अर्जुन अपने तरकस के तीरो से कई अच्छे धनुर्धरो को पानी पिला चुके है किंतु उनका वह युद्ध पराये आदमियों से हुए थे। अपने जीवन मे अर्जुन ने सैकड़ों युद्ध किए किंतु अपने शत्रु का खुन बहाने में कभी पाप-पुण्य का ख्याल नहीं आया, न ही हत्या करने में कोई संकोच ही हुआ। इसलिए कृष्ण जानबुझ कर अर्जुन को दोनो सेनाओ के मध्य स्थित खड़े हुए अपने सगे-संबधियों को देखने के लिए कहते है। अर्जुन दोनो सेनाको मे मध्य खड़े हुए अपने सगे-संबंधियों को देखते है। अर्जुन के जीवन का यह विशेष क्षण है। एक नई यात्रा और नया अनुभव है। एक आम आदमी और अर्जुन मे यही समानता है। पराये और अपनों मे भेद प्राय: सभी मनुष्य करते है और यही शुरू होती है जीवन की एक नई यात्रा, नया अनुभव।

तांसमीक्ष्य स कौंतेय: सर्वान्बन्धूनस्थितान।
कृपया परयाविष्टो वोषीदन्निदमब्रवीत॥27॥

अनुवाद:- उन सारे बन्धुओं को देखकर, वह कुंतिपुत्र अत्यंत करूणा से भरकर, शोक करता हुआ यह वचन बोला।

अर्जुन उवाच:- दृष्टवेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्।
सीदंति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति॥28॥

अर्जुन ने कहा:- हे कृष्ण! युद्ध करने की इच्छा से आए हुए इन बन्धुओं को देखकर मेरे शरीर के अंग कांप रहे है और मुँह सूखा जा रहा है।

वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते।
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते॥29॥

अनुवाद:- मेरे शरीर मे कम्पकँपी हो रहा है और रोमांच हो रहा है, मेरे हाथ से गाण्डीव धनुष गिर रहा है और शरीर की त्वचा जल रही है।

न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मन:।
निमितानि च पश्यामि विपरीतानि केशव॥30॥

अनुवाद:- मेरा मन घुम रहा है, मै अपने को भूल रहा हूँ इसलिए मै खड़ा रहने में भी समर्थ नही हूँ। हे कृष्ण! मै सारे लक्षण भी बुरा ही देख रहा हूँ।

न च श्रेयोSनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।
न कांक्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च॥31॥

अनुवाद:- हे कृष्ण! निज बन्धुओ को युद्ध में मारने मे मुझे कोई अच्छाई नही दिखाई पड़्ती है। मुझे जीत, राज्य या सुख-वैभव नही चाहिए।

संक्षिप्त टिप्पणी:- युद्ध भूमि में अपने बन्धु-बान्धवो को देखकर अर्जुन का मन अत्यंत शोक और करूणा से भर जाता है। ये लक्षण अर्जुन की हृदय की कोमलता और शुद्ध भक्ति के कारण उत्पन्न होता है। युद्ध की जीत में भी कारूण्य के कारण अर्जुन को अमंगल ही दिखाई पड़ रहा है। इस सांसातिक मझधार में अर्जुन का एक मात्र मार्गदर्शक, परम हितैषी मित्र और सारथी कृष्ण है। इसलिए विवश अर्जुन श्री कृष्ण को अपनी मानसिक स्थिति बताते है। अर्जुन मोह के वशीभूत हुए चले जाते है फलस्वरूप ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है।

इस संसार में भौतिक और अभौतिक भावना के कारण प्राय: आमजन में ऐसी विशेष स्थिति उत्पन्न होती है। भौतिक भावना के वशीभूत होकर लोग धन, राज्य, ऐश्वर्य की कामना में डूब जाते है। वही दूसरी तरफ अभौतिकता ईष्या, जलन और द्वेष से कोसो दूर हो, मनुष्य को ईश्वर रूपी सारथी की तरफ मोड़्ता है। फलस्वरूप, अविचल भक्ति की उत्पत्ति होती है, परिणामस्वरूप, सदगुणो का तेजी से विकास होता है। अत: हम सभी सारथी श्री कृष्ण को अपनी वयथा बताए, वे जरूर सुनेगे। “मागेगे तो पाऐंगे, अर्जुन बन जायेंगे। भव सागर को देख, कभी न घबड़ायेगें। कृष्ण स्वयं आयेंगे, मोक्ष मार्ग बतायेगे।“

किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैजीवितेन वा।
येषामर्थे कांक्षितं नो राज्यं भोगा: सुखानि च॥32॥

अनुवाद:- हे गोविन्द! हमे ऐसे राज्य और भोग और जीवन से क्या करना है? क्योकिं जिन सारे लोगो के लिए उन्हे चाहते है, वे ही इस युद्ध भूमि में खड़े है।

त इमेSवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्तवा धनानि च।
आचार्या: पितर: पुत्रास्तथैव च पितामहा:॥33॥

मातुला: श्वशुरा: पौत्रा: श्याला: सम्बन्धिंस्तथा
एतान्न हंतुमिच्छामि धंतोड्पि मधुसूदन॥34॥

अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतो: कि: नु महीकृते।
निहत्य धार्तराष्ट्रान्न: का प्रीति: स्याज्जनार्दन्॥35॥

अनुवाद:- हे मधुसूदन। इनमें गुरूजन, पितृगण, पुत्रगण, पितामह, मामा, ससुर, पौत्र्रगण, साले और अन्य संबंधी मुझे मारे तो भी मै त्रैलोक्य के राज्य के लिए इनको मारने की इच्छा नही करता हूँ। फिर केवल पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है? हे गोविन्द ! धृर्तराष्ट्र के पुत्रो को भला मारकर हमें कौन सी प्रसननता मिलेगी।

क्रमश:
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रचनाकार परिचय:-
अजय कुमार सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया) में अधिवक्ता है। आप कविता तथा कहानियाँ लिखने के अलावा सर्व धर्म समभाव युक्त दृष्टिकोण के साथ ज्योतिषी, अंक शास्त्री एवं एस्ट्रोलॉजर के रूप मे सक्रिय युवा समाजशास्त्री भी हैं।

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